Sunday 24 February 2013

पत्थर उबालती रही माँ तमाम रात; बच्चे फरेब खा के चटाई पे सो गए


भूखे बच्चों को चूल्हे पर अदहन चढ़ाकर खाना बनने का भ्रम बनाता हूँ, बच्चे खाना बनने के इंतज़ार में सो जाते है  धन्नू मुसहर ........
                मेरा नाम धन्नू मुसहर पुत्र स्व0 मिठाई मुसहर निवासी रमईपुर मुसहर बस्ती ग्राम पंचायत विकास खण्ड तथा तहसील-पिण्डरा, जिला वाराणसी का मूल निवासी हूँ। मेरी उम्र ३८ वर्ष हैं  हमारे  दो लड़के व पाँच लड़कियाँ थी जिसमें से दो लड़कियां सुषमा व सरोजा का विवाह हो गया और वह अपने ससुराल चली गयी व एक लड़का राजेश हमसे अलग रहता है इस समय मोनू-12 वर्ष, कुमारी 5 वर्ष व अनिता 6 माह सहित हमारी पत्नी सुदामा हमारे साथ रहती है। मोनू गाँव के सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ता है, कुमारी व अनिता गाँव के आँगन बाड़ी केन्द्र में नामांकित हैं मगर उन्हें आँगनबाड़ी का कोई सेवा नहीं मिलता जिसमें अनिता गम्भीर रूप से कुपोषण की शिकार है यहां तक की आँगनबाड़ी कार्यकर्ती या सहायिका दोनों में से कोई  अनिता को देखने तक नहीं आती मैं निहायत गरीब भूमिहीन हूँ हमारे पास BPL राशन कार्ड है। जिसपर 35Kg अनाज मिलता है उसमें से भी  3-4 Kgअनाज कम मिलता है जिसमें से गेहू एक सप्ताह व चावल 10 दिन तक ही चलता है। हमारे पास मनरेगा जाँव कार्ड है मगर उसपर कभी-कभी ही काम मिलता है काम करने के एक दो माह बाद उसका मजदूरी मिलता है। मैं दिहाड़ी मजदूरी के साथ दोना-पत्तल बनाने का काम करता हूँ आठ माह तक गाँव में ही आस-पास खेतिहर मजदूरी व दिहाड़ी मजदूरी का काम करता हूँ जिसमें कभी काम मिलता है तो कभी काम नहीं मिलता घर में भी कभी खाना बनता है तो कभी खाना नहीं बनता जिस दिन खाना बनता है तो दिन भर में एक समय सुबह ही खाना बन पाता है तो शाम को  नहीं बन पाता है | सुबह जब भी खाना बनने लगता है तो बच्चें खाना बनने वाली हडीयाँ के पास बैठ कर इन्तजार करते है कि अब खाना बनेगा और मिलेगा हमारे बच्चों को खाना खाने को तो मिलता है, मगर कभी पेट भर खाना नहीं मिलता है। हम दोनो पति-पत्नी को तो आये दिन बीना खाये ही सोना पड़ता है।   
                आषाढ़, सावन, भादो के महिना में मैं अपने घर का रोजी-रोटी चलाने के लिए पूरे परिवार के साथ इलाहाबाद के पड़गड़ के जंगल में पत्ता तोड़कर दोना पत्तल व लकड़ी तोड़कर बेचने का काम करता हूँ जब तेज बरसात होता है तो वापस अपने गाँव चला आता हूँ। ‘‘अपने लड़की के शादी के लिए 10,000/- रूपया 60% प्रति वर्ष की दर से ब्याज लिया हूँ’’ जो कमाई होता है उसका ब्याज भर देता हूँ। तब घर वापस आने के बाद  ना ही हमारे पास अनाज व पैसा नहीं बचता इस स्थिति में आस-पास की दुकान से कर्ज लेकर किसी तरह अपने बच्चों को खिलाती हूँ इस बार लगातार पाँच दिन तक बूँदा बाँदी कर बरसात होता रहा हमारे घर में खाने को एक दाना नहीं था हमारे बच्चे भूख से तड़प रहे थे। उस समय पूरे बस्ती में वही स्थिति थी, किसी के घर चूल्हा नहीं जल रहा था मैं पिण्डरा बाजार में गया की दुकान से कुछ बच्चों के खाने हेतु आटा-दाल लाऊ मगर हमारे पास एक भी फूटी कौड़ी पैसा नहीं था दुकान वाला झिन-झिना कर भगा दिया और कहा कि तुम हमारा पैसा कहा से लाकर दोगे उधार सामान नहीं मिलेगा। इसी तरह मैं चार दुकान पर गया मगर कोई सामान नहीं दिया मैं वापस घर आ रहा था तब हमें लगा कि आज मैं कितना विवस हूँ की अपने बच्चो को दो वक्त का रोटी नहीं दे सकता हमसे अच्छा तो हमारे गाँव का कुत्ता है जो सुबह शाम अपने बच्चे को खाना लाकर देता है।
                जब मैं घर वापस आया तो हमारी पत्नी व बच्चे राह देख रहे थे कि कुछ आयेगा और घर में खाना बनेगा हमसब मिलकर खायेगे बच्चे रो रहे थे। तब मैं अपने पत्नी को कहा की चूल्हा जला दो और उसमें अदहन लगा दो तब बच्चे और करीब चुल्हे के पास आकर बैठ गये अब बनेगा और मिलेगा धीरे-धीरे बच्चे खाना का इन्तजार करते-करते सो गये और सुबह उठकर खाना माँगने लगे तब मैं कहा की तुम सब सो गये कुत्ता खाना खा गया। सुबह बरसात बन्द हुआ और मैं एक पेड़ से जाकर सूखा लकड़ी तोड़कर बाजार में बेचा और बच्चो को खाने का सामान लाया तब हमारे बच्चे खाना खाये। यह सब बताने पर हमें फिर उस दिन की कहानी याद आ रही है यह सब बताने पर हमारा मन हल्का हुआ।
 
साक्षात्कारकर्ता -मंगला प्रसाद (मानवाधिकार कार्यकर्ता )

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