Sunday 24 February 2013

बच्चों को भूखे पेट सुला देती हूँ



 कई बार मै अपने बच्चों को भूखे पेट सुला देती हूँ अहमदी ............
                                              
         मेरा नाम अहमदी उम्र 25 वर्ष हमारे शौहर का नाम असलम हैं, ग्राम-मीराशाह ग्राम पंचायत विकासखण्ड तथा तहसील- पिण्डरा, जिला वाराणसी की निवासीनी हूँ। हमारे दो बच्चें शाहिल उम्र 7 वर्ष,  आस्मिन उम्र 2 वर्ष वजन 6.50 Kg की है, शाहिल गाँव के ही सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने जाता है। आस्मिन गाँव के आँगनबाड़ी केन्द्र में नामांकित है मगर उसे कोई सेवाये नहीं मिलती, यही नही वह गम्भीर रूप से कुपोषण की शिकार है तब भी उसे आँगनबाड़ी कार्यकर्ती सहित सहायिका देखने तक नहीं आती मैं निहायत गरीब व भूमिहीन परिवार हूँ हमारे पास कोई राशन कार्ड यहाँ तक की मनरेगा जाँब कार्ड भी नहीं है।
       हमारे पास एक झोपड़ी थी मगर वह हर बरसात में उजड़ जाता था मैंने अपने शौहर के साथ मिलकर अपने झोपड़ी के चारो तरफ मिट्टी की कच्ची दीवार बनाकर और उस पर सिमेन्ट की चादर (पत्ता) 15000/- रूपया 120% वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज लेकर लगाया |
            हमारे शौहर गाँव में ही किराये पर दुकान लेकर फटे-पुराने कपडो की सिलाई का काम थोड़ा बहुत जो कर लेते हैं, गाँव में सिलाई का दुकान होने के नाते ज्यादा सिलाई का काम नहीं हो पाता है जो सिलाई हो जाता है, उसमें भी आधा से ज्यादा उधारी का सिलाई होता है ज्यादा दबाव बनाकर पैसा नहीं माँगते है कि अगले बार ग्राहक हमारे दुकान पर आयेगा भी नहीं फिर किसका कपड़ा सिलाई करेगे सिलाई प्रतिमाह  1500/- रूपये तक मजदूरी मिल पाता है। इधर जब ब्याजी रूपये का महीना में ब्याज पूरा होने लगता है तो उसके पहले ही साहूकार अपना ब्याज लेने घर पर चला आता है वह अपने पूरे माह का ब्याज माँगने लगता है। जब मैं साहूकार से अपने घर की स्थिति बताती हूँ कि इस माह में सिलाई 1500/- रूपया का हुआ था, खर्चा हो गया अगले माह में ब्याज दे दूंगा मगर वह हमारी जो एक भी नहीं सुनता और डाट कर भद्दी-भद्दी शब्दों का प्रयोग कर हमें झिन-झिनाने लगता है और कहता है कि मैं कुछ भी नहीं सुनना व जानना चाहता हूँ मैं तुम्हारी मजदूरी का ठेका नहीं लिया हूँ ‘‘रूपया लेत समय तो यह नहीं सोच रही थी’’ हमें मूलधन नहीं तो ब्याज चाहिए, दबाव बनाकर जो बचा हुआ रूपया था वह लेकर चला गया। उस समय हमारे घर में खाने के लिए एक भी दाना नहीं था पूरा दिन बच्चें इधर-उधर खाने के लिए गाँव में ही पड़ोसियों के घर भटकते रहे जब शाम हो जाता है और हमसे बच्चों की भूख देखी नहीं जाती तब अपने आस-पास पड़ोसी से खाना माँग कर शाम को खिलाती हूँ। खाना माँगते समय पड़ोसी भी तरह-तरह आवाज-व्यंग बोलते है। उस समय लगता है कि मैं मर क्यों नहीं जाती मगर हमारे बच्चों का क्या होगा सब कुछ सहकर चली जाती हूँ। वह खाना खा कर हमारे बच्चें सिर्फ चुप हो जाते है उनका पेट नहीं भरता वह खाना मांगने की जीद करते है। तो उन्हें मार-पीट कर किसी तरह सुलाती हूँ जब मैं सोचती हूँ कि मैं अपने बच्चों को भर पेट खाना नहीं खिला पा रही हूँ हमारा दिन इतना खराब है तब दिल से से रोने की आवाज तो आती और आंसू रूकने का नाम नहीं लेता कि मैं अपने बच्चों को भूखा सुला रही हूँ।
            यह सब बात मैं अपने शौहर तक को नहीं बताती की ‘‘यह सब हुआ और हमारे बच्चें भूखे सो रहे है’’ यह गरीबी देख आत्म हत्या न कर ले यदि ऐसा हुआ तो हमार और हमारे बच्चों का क्या होगा। यह सब सोच कर हमें रात-रात भर नीद नहीं आती।
            यह गरीबी की स्थिति आज मैं पहली बार बता रही हूँ जो मैं कभी किसी को नहीं बतायी थी। हमने कभी सोचा भी नहीं था कि हमारा कोई दुखड़ा इस तरह सुनेगा। यह सब बताते हुये हमारा मन हल्का हुआ है।

साक्षात्कारकर्ता- मंगला प्रसाद ( मनावाधिकार कार्यकर्ता )                        

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